न्यायालय की मर्यादा पर हमला — सिर्फ जूता नहीं, हमारे समाज की चेतना पर वार है

कल जो हुआ — जब Chief Justice of India (CJI) पर जूता फेंका गया — ये सिर्फ एक व्यक्तिगत अपमान नहीं है। ये हमारे संवैधान, न्यायपालिका की गरिमा और सामाजिक न्याय की लड़ाई पर जोरदार हमला है।

न्यायालय की मर्यादा पर हमला — सिर्फ जूता नहीं, हमारे समाज की चेतना पर वार है

कल जो हुआ — जब Chief Justice of India (CJI) पर जूता फेंका गया — ये सिर्फ एक व्यक्तिगत अपमान नहीं है। ये हमारे संविधान, न्यायपालिका की गरिमा और सामाजिक न्याय की लड़ाई पर जोरदार हमला है।

लेकिन इस घटना की गहराई सिर्फ हिंसा तक सीमित नहीं है — इसमें एक हिसा है जो अक्सर अनसुना रहता है: जात-पात और सामाजिक असमानता।

कौन हैं CJI — एक महत्वपूर्ण तथ्य

वर्तमान Chief Justice Bhushan Ramakrishna Gavai, भारत के पहले बौद्ध धर्मावलंबी CJI हैं।

साथ ही, वे दलित समुदाय (Scheduled Castes) से हैं, और यह सिर्फ दूसरा मौका है जब कोई SC-वर्ग से संबंध रखने वाला न्यायाधीश देश का सर्वोच्च न्यायाध्यक्ष बना है — पहला था Justice K. G. Balakrishnan।

Supreme Court में अब कुल तीन Dalit न्यायाधीश हैं (Justice Gavai सहित), जो यह दर्शाता है कि प्रतिनिधित्व बढ़ रहा है, लेकिन अब भी यह संख्या न्यायपालिका की पूरी ताकत के मुकाबले बहुत कम है।

दलित पहचान का महत्व और दबाव

इस पहचान को सिर्फ एक व्यक्तिगत गुण के रूप में न देखें — यह सामाजिक न्याय, समान अवसर औरमर्यादा की लड़ाई से जुड़ी है:

दलितों के इतिहास में न्यायपालिका तक पहुँच पाना आसान नहीं रहा है — शिक्षा, संसाधनों, सामाजिक पूर्वाग्रह आदि ने बहुत सी बाधाएँ खड़ी की हैं।

जब कोई दलित व्यक्ति उच्चाधिकारियों की श्रेणी में पहुँचता है, तो उसके खिलाफ अपेक्षाएँ, पूर्वाग्रह और आलोचनाएँ बढ़ जाती हैं। अक्सर ऐसी घटनाएँ सिर्फ “व्यक्तिगत” नहीं होतीं, बल्कि उनकी जात-पात की पहचान से जोड़ दी जाती हैं — चाहे उससे कोई लेना-देना न हो।

इस घटना (जूता फेंकना) के बाद जो प्रतिक्रियाएँ आ रही हैं, उनमें से कुछ लोगों की सोच शायद इस बात से प्रभावित हो कि “ऐसा काहे हुआ क्योंकि वे दलित हैं?” या “उच्च जातियाँ इस तरह की स्तिथि से परेशान हैं।” इस तरह की सोच ही असमानता को बढ़ाती है।

जो हुआ — यह अपराध है, यह आत्म-सम्मान का उल्लंघन है

न्यायपालिका की मर्यादा (supremacy) संविधान की आधारशिला है। जब न्यायपालिका का सर्वोच्च मुखिया ही सुरक्षा की दृष्टि से असुरक्षित हो — तो यह पूरे लोकतंत्र की चिढ़ है।

न केवल संविधान, बल्कि हम सभी की उम्मीद कि न्याय हर किसी के लिए समान होगा — इसे भी चोट पहुँची है।

असहमति हो सकती है, विचार-विमर्श हो सकता है, लेकिन किसी पद, किसी व्यक्ति की गरिमा पर हमला करना यह दर्शाता है कि हमारा समाज कितनी गहरी दरारों से गुज़र रहा है।

मांगें जो अनिवार्य हैं

1. कड़ी, निष्पक्ष और पारदर्शी जांच हो कि यह घटना कैसे हुई, कौन जिम्मेदार है, और उनका सज़ा मिलनी चाहिए।

2. न्यायपालिका की सुरक्षा और मर्यादा सुनिश्चित करना, ताकि भविष्य में किसी भी न्यायाधीश पर ऐसा हमला न हो।

3. जातीय पूर्वाग्रहों को खत्म करने का साहस समाज और मीडिया में सामने आए — सिर्फ पत्रकारों, अध्यापकों, नागरिकों से नहीं, बल्कि सभी से।

4. न्यायपालिका में प्रतिनिधित्व बढ़ाया जाए — दलितों, आदिवासियों, पिछड़े वर्गों और अन्य अल्पसंख्यकों की भागीदारी सिर्फ अंक के लिए न हो, बल्कि न्याय का अनुभव और संवेदनशीलता सुनिश्चित करे।

अंत में — यह हमें कहाँ ले जाएगा?

हमारे देश ने संविधान द्वारा यह वादा किया है कि “समानता, न्याय, सामाजिक और आर्थिक अवसर” सबको हों। जब न्यायपालिका की स्वतंत्रता, मर्यादा और गरिमा पर हमला होता है, तो वह वादा खतरे में पड़ जाता है।

यह घटना सिर्फ एक जूते का फेंकना नहीं है — यह आत्म-सम्मान, संविधान की गरिमा, जातीय समानता और न्याय की उम्मीद पर वार है।

अगर हम चुप रहें — तो अन्याय स्वीकार किया जाएगा, असमानता बढ़ेगी।

लेकिन अगर हम बोलें — न्याय की आवाज उठाएँ — तब शायद उस भविष्य की शुरुआत हो सके जहाँ जात-पात मायने नहीं रखेगा, और सभी को सम्मान और न्याय मिलें।

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