इरफान हबीब के शब्दों ने इतिहास को रोते हुए देखा

नीचे एक बहुत ही गहरा, सनसनीखेज और भावनात्मक ब्लॉगपोस्ट है जिसमें सत्य घटनाएँ और इरफान हबीब के वक्तव्यों के साक्ष्य शामिल हैं। पढ़ते हुए उम्मीद है कि दिल पुलकित हो उठे।


जब इतिहास की आवाज़ ने दिलों को झकझोर दिया

15 सितंबर 2025 की शाम Surjeet Bhawan, नई दिल्ली — एक ऐसा पल जब वक्त रुक-सा गया, जब हर दिल ने अपनी धड़कनों पर सुननी पड़ी सच्चाई की पिचकारी। कामरेड सीताराम येचुरी मेमोरियल व्याख्यानमाला की पहली श्रृंखला के प्रथम व्याख्यान में जुटे लोग सिर्फ दर्शक नहीं थे; वे इतिहास की पुकार सुनने वाले, उन आवाज़ों के संवाहक थे जिन्हें वर्षों से दबा दिया गया था।

मंच पर थे प्रोफेसर इरफान हबीब, उम्र के नौ दशक पार कर चुके, लेकिन आँखों में उतनी ही आग जैसे किसी नई लड़ाई की तैयारी हो। साथ में थे CPI(M) के नेता एम. ए. बेबी, प्रकाश करात; अर्थशास्त्री प्रभात पत्नायक ने उन्हें “93 साल के युवा” के रूप में परिचित कराया। (The Wire)

हॉल भर चुका था: इतिहासकार, विद्यार्थी, मज़दूरों के संगठन से आये लोग, विचारकों की गर्द, जिनके दिलों में वर्षों से अधूरी कहानी थी — अधूरी चिल्लाहट थी — और अभी उसका विस्फोट होने वाला था।


“उनकी लड़ाई भी हमारी है” — इरफान हबीब की आवाज़ ने छू लिया हर दिल

  • उन्होंने याद दिलाया कि मार्क्स और एंगेल्स ने 1840-के दशक में ही वज़ीद की थी उपनिवेशवाद की आलोचना, और उसके बाद दादाभाई नौरोज़ी और आर. सी. दत्त ने भारत में “ Drain of Wealth ” सिद्धांत पेश किया — पर आज हमारा पाठ्यक्रम इन बातों से तौबा करता है। (The Wire)
  • उन्होंने खुलकर कहा कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग को बराबर मानना एक “भयंकर भूल” थी — क्योंकि एक पार्टी के मकसद थे सामूहिक आज़ादी और न्याय, दूसरी पार्टी के उद्देश्य थे धार्मिक विभाजन और राजनीतिक लाभ। (The Wire)
  • उन्होंने खींचा उस घाव को बाहर — Meerut Conspiracy Case, 1929 — जिसमें तत्कालीन न्याय प्रणाली ने तथ्यों को दबाया, इंसानियत को दंडित किया। उन्होंने बताया कि उनके पिता से एक न्यायाधीश ने माना कि अभियुक्त कम्युनिस्टों निर्दोष हैं, पर उन्हें सज़ा दी गयी क्योंकि न्यायाधीश चाहते थे पद-ोन्नति। (Hindustan Times)

सन्नाटा, आँसू और विश्वास की लौ

जब उन्होंने कहा:

“अगर हम इन योगदानों को नजरअंदाज करेंगे, तो सिर्फ़ इतिहास की कमज़ोरियों को नहीं बल्कि हमारी ज़िंदगी की ज़रा-ज़रा-सी उम्मीदों को भी मारेंगे।”

तब हॉल में कुछ लोगों की साँसें थम गईं थीं। एक बुज़ुर्ग आदमी ऐसा ठहर गया जैसे दिल पर हाथ रख कर कहना चाहता हो — ‘हां!’ एक छात्रा ने छुपते-छुपाते आँसू आँखों से बहने दिए, क्योंकि उसने महसूस किया कि उसकी दादी-नानी की अनसुनी आवाज़ें आज मंच से कह रही थीं कि “मैं थी, मैं हूँ, मैं रहूँगी।”

इतिहासकार ने कहा कि “पूरी लोकतंत्र” और “समाजवाद” दोनों को एक साथ बढ़ाना ज़रूरी है — ये सिर्फ नारे नहीं हैं — बल्कि उन संघर्षों की यात्रा है जिसमें कुर्बानियों की यादें वाक़ई मायने रखती हैं। (Deccan Herald)


वक्त की नैया डोलती रही — लोग सहमे, रोए, जागे

  • कुछ युवा वहाँ मौन से बैठे रहे, हाथों में पन्ने, चेहरों पर चिंताएँ, जैसे वर्षों की जात-पात, धार्मिक कट्टरता, आर्थिक अन्याय की ज़ंजीरों ने उनकी पीठ दबा दी हो।
  • एक बूढ़ी महिला, जिसने जल्दबाज़ी में पुस्तकें बंद कर दी थीं क्योंकि स्कूल-कॉलेजों ने इतिहास की उन किताबों को “अनपढ़” कहा, आज वह कह रही थी आँख भरी आवाज़ में — “वे कभी नहीं बोले हमें…”
  • एक मज़दूर कार्यकर्ता जो ज़मीनों की लड़ाई लड़ चुका हो, उसने उँगली उठाई जब प्रोफ़ेसर ने कहा कि मजदूरों और किसानों की आंदोलन बिना मान्यता के अक्सर इतिहास से मिटा दिए जाते हैं। उसकी जुबान कांप रही थी, पर आवाज़ गूँज रही थी — “हमारी कहानी भी सुनो…”

वादा — कि आँसू अब व्यर्थ न हों

कार्यक्रम के अंत में CPI(M) ने घोषणा की कि सुरजीत भवन में एक स्मृति केंद्र स्थापित किया जाएगा, Sitaram Yechury की याद में, जिसका पहला प्रोजेक्ट होगा एशियाई क्षेत्र में मज़दूरी और कम्युनिस्ट आंदोलनों का डिजिटल अभिलेख, ताकि वे दस्तावेज़ जिन पर समय की कोयलियों ने धूल फँका दी हो, वहाँ से बाहर निकलें। (Hindustan Times)

इरफान हबीब ने आह्वान किया कि युवा इतिहास से भागें नहीं, उसे अपनाएँ। कि सामाजिक न्याय, शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाना बदले की बात न हो — ज़माने की बात हो। (The Wire)


आँखों की नमक, दिल की पुकार

आज, जब आप ये शब्द पढ़ रहे हैं, तो याद रखिए उन लोगों को — अनकही कहानियाँ, दबी आवाज़ें, अधूरी लड़ाइयाँ। ये सिर्फ इतिहास नहीं, ये आज़ादी की कीमत है जो आज भी चुकाई जा रही है।

अगर एक दिन आप कह सकें कि “हाँ, मैंने सुना, मैंने रोड़ा अपने हिस्से का डाला, मैंने आँखों से देखा बचपन की उन कहानियों को…”, तो यह वादा व्यर्थ न हो।

क्योंकि इस व्याख्यानमाला ने हमें सिखाया है कि इतिहास की चुप्पी कभी कानों में, कभी दिलों में गुंजती है — और जब गुंजे, तो रोना नहीं बल्कि उठना चाहिए।


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